एक हथिनी थी, हमे मनुष्य समझती थी!

आदमी, आदमी को मारे,
जंगल मारे,जमीन मारे,
समंदर मारे , पाताल मारे
स्मिता मारे, विश्वास मारे
हक मारे, निवास मारे
अनुशासन मारे, संविधान मारे
जानवर मारे,
अपने ईमान को मारे..
पूरे जहान को मारे,
इससे अच्छा है इंसान को खुद मार दे।

#यह महसुसीयत 
स्वार्थीपन के नशे में चूर लोगो के लिए नही है।

#बच्चे भविष्य है भारत के, वही समाज को मानवीय बना सकते है। 
#शिक्षकगण से विनम्र आग्रह है किसी भी अमानुषिक घटनाओ के बारे में
बच्चो को मनडोलई की शैली में इस कहानी जैसे  बताए ताकि उन्हें तथ्य,समस्या की जड़ ,कारण और निजात समझ आये जिससे उनमें नैतिक तर्क विकसित हो सके। 

एक हथिनी थी जो मनुष्य को सबसे सभ्य प्राणी समझती थी...

एक हथिनी थी, #केरल के #जंगल में रहती थी।
मनुष्य जंगल काट विरल कर ही चुके है
उसे भूख लगी थी इसलिए वह गांव के पास आ गई। भोजन की तलाश में भटक रही थी
तभी किसी ने उसे पाइनापल में पटाखे भरकर खिला दिए। पटाखे उसके मुंह में ही फट गए। इससे उसका जबड़ा फट गया, दांत टूट गए। पेट तक बारूद चला गया। दर्द से तड़पती हथिनी भटकती रही गांव में। जब राहत नहीं मिली तो नदी में उतर गई। तीन दिन पानी में ही रही। सुंड डुबाए रखी #वेलियार नदी में। अंतत: वहीं उसकी मौत हो गई। वह अकेली नहीं मरी, उसके पेट में पल रही एक नन्ही जिंदगी ने और दम तोड़ दिया। नदी में खड़े हुए शायद वह अपने आप से ज्यादा उस नन्ही जान की चिंता कर रही थी। इसलिए बार-बार पानी पीती रही। इस उम्मीद में कि शायद इससे उसके भीतर मची बारूद की जलन शांत हो जाए। 

मालूम है कि उस हथिनी की गलती क्या थी?
यही कि उसे लगा जंगल वही है, जहां वह रहती है। वह अंदाजा नहीं लगा पाई कि असल जंगल वहां से शुरू होता है, जहां से उसका जंगल खत्म होता है। उसके जंगल में जितने भी जानवर रहते हैं, वे सब नजर आते हैं। उन्हें पहचानना आसान होता है कि यह भेड़िया है, यह भालू है, यह बाघ और यह लोमड़ी। मगर खाने की तलाश में जिस जंगल में वह आई थी, वहां रहने वाले जानवरों ने खुद को खोल में छुपा रखा है। देखने से वे इंसान लगते हैं, लेकिन भीतर कितनी क्रूर और हिंसक है, जानवरों से बदतर है, यह पता नहीं लगता। दूसरे इंसान जब अंदाजा नहीं लगा पाते तो वह हथिनी कैसे जान पाती कि ये जो हाथ मदद के लिए बढ़ रहे हैं वास्तव में कुछ पल की मस्ती-मजाक के लिए उसकी सांसें ही छीन लेने वाले हैं। 

क्योंकि हथिनी ने शायद कभी ऐसा देखा ही नहीं होगा। बाघ उसकी तरफ कभी झपटा होगा तो उसे पता होगा कि ये क्यूं आ रहा है। साथ के किसी हाथी ने जब उसकी तरफ कदम बढ़ाए होंगे तो उसे पता होगा। कुलांचे भरती हिरणों से लेकर खरगोश और लक्कड़बग्घा तक सबको वह देखकर समझ लेती होगी कि इनका मकसद क्या है। यह क्यों मेरे पास आया है। इंसान इतना गिरा हुआ हो सकता है 
भीतर से इतना क्रूर हो सकता है यह सबसे बुद्धिमान प्राणी...
सोचा भी नहीं होगा कि जो प्यार दिखा रहा है, उसकी भूख मिटाने के लिए पाइनेपल आगे बढ़ा रहा है, उसकी हकीकत कुछ और है। हो सकता है उस समय उसकी आंखों में ममता और प्यार भी हो, लेकिन असलियत में उसके पीछे कितनी क्रूरता छुपी है, इसे पहचानना मानवीय जंगल के किसी स्कूल में नहीं सिखाया जाता।

गलती यह हुई कि उसने #दर्द से छटपटाते हुए बस्ती के चक्कर तो काटे, लेकिन किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। वह यहां-वहां भटकती रही। कराहती रही, रोती-चीखती रही। जब बारूद उसकी आंतों को जला रहा होगा, उसके अंगों में पल रहे मासूम को नुकसान पहुंचा रहा होगा तब भी वह अकेली ही दर्द सहती रही।
जिन धर्मांतरित लोगों ने उसके साथ यह क्रूर मजाक किया अपने विशाल दन्त होने के बावजूद नोंचकर उससे अधिक तगड़ा दर्द देने की उसने जरा कोशिश नहीं की।

वह अपने भीतर की जलन से लड़ती रही और आखिर में नदी में पनाह ली। उसे लगा होगा कि नदी का जो जल उसकी प्यास बुझाता है, शायद वह यह जलन भी मिटा देगा। बारूद से उसका वास्ता पहले पड़ा भी कब होगा जो वह यह जान पाती कि इसका जुनून और इससी उपजी जलन दोनों का मिटना मुश्किल है। बेहतर होता वह कुछ घर उजाड़ देती तो शायद वन विभाग के लोग कुछ जल्दी उसके पास पहुंच जाते। उसे और 18 महीने बाद आने वाली एक और जिंदगी को किसी तरह बचा पाते। 

तीन दिन तक आधे से अधिक नदी में डूबे हुए वह क्या सोच रही होगा। उसके मन में कैसे ख्याल आ रहे होंगे। सुंड को डुबाए पानी की धार खींचते हुए वह कैसी उम्मीद और निराशा के बीच झूल रही होगी। क्या वह खुद को वैसे ही कोस रही होगी कि मैं आखिर बस्ती के करीब गई ही क्यों या मैंने वह अन्नास खाया ही क्यों। मैंने उन लोगों पर भरोसा कैसे कर लिया। एक दिन और भूख सह लेती तो क्या बिगड़ जाता। उसके अफसोस का एक-एक शब्द हमारी पीढ़ियों के लिए क्या श्राप की तरह नहीं फूट रहा होगा। और जो जिंदगी उसकी कोख में आकर ले रही थी, वह क्या सोच रही होगी। इंसानों के हाथों धोखा खाकर वे दोनों इस दुनिया को चुपचाप अलविदा कह गए। 

#अलविदा हथिनी, अलविदा उसके बच्चे, अलविदा इंसानियत, अलविदा … और कुछ नहीं है कहने को उस हथिनी के लिए जिसे खुद नहीं पता था कि उसकी गलती क्या थी। बस इतना सुना है कि नदी की धार हथिनी के जाने के बाद कुछ लाल हो गई है.....

जीवन कुछ हो न हो ऐसे लाल क्रूर के भागीदार कभी ना बने👏

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