वो समय सच्चे थे!

एक जिंदगी
न जाने..कितनी...कहानियां
अपने में समेटे हुए गुजर जाती है
लोग उनमें से अपनी पसंद की
कहानी पढ़ लेते हैं
पर हम खुद से पढ़े तो वही सच!

सातवीं तक घर से तख्ती(बस्ता) लेकर स्कूल गए थे!
स्कूल में टेबल बेंच की अनुपलब्धता में घर से बोरी का टुकड़ा बगल में दबा कर ले जाना भी हमारी दिनचर्या थी।

स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत लग चुकी थी लेकिन जैसे ही पापबोध का ज्ञान मिला तो पढ़ाई का तनाव में
हमने पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाना भी छोड़ दिया था। पाप जुठ से बहुत डर लगने लगा सिलेट किताब कॉपी को अपने से ज्यादा संभाल रखने लगे की कहीं सरस्वती माई नाराज न हो जायें और हमको विद्या न दे।

पेड़ पौधो में पानी डालना, स्कूल परिसर की सफाई के बाद प्रार्थना,
पुस्तक के बीच विद्या, मोरपंख रखने से हम होशियार हो जाएंगे मिडिल स्कूल तक ऐसा हमारा दृढ विश्वास था। 

कक्षा छः में पहली दफा हमने अंग्रेजी का ऐल्फाबेट पढ़ा और पहली बार ABCD देखी।
यह बात अलग है कि बढ़िया कर्सिभ लेटर बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था और  शुद्ध ग्रामर के साथ फर्राटेदार अंग्रजी की तो अब तक आदत न पड़ पाई।

किताब के अभाव में दूसरे से किताब उधारी मांगकर दिन रात भर में कॉपीयो को किताब बनाना हमारा रचनात्मक कौशल था।

हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का वार्षिक उत्सव था।

माता-पिता को हमारी पढ़ाई की बहुत फ़िक्र थी लेकिन सालों-साल बीत जाते पर माता-पिता के कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे।

मास्टरजी के मूड पर स्कूल में पिटते हुए और मुर्गा बनते हमारा ईगो हमें कभी परेशान नहीं करता था, दरअसल हम जानते ही नही थे कि ईगो होता क्या है? बस इतना जाने की हमसे गलती हुई अब पीटाकर ठीक हो गए।
स्कूल, घर की पिटाई सहज सामान्य प्रक्रिया थी, पीटने वाला और पिटाने वाला दोनो खुश रहते, पिटाने वाला इसलिए कि कम पिटे,
पीटने वाला इसलिए खुश कि बालक खेलेगा कम पढ़ेगा ज्यादा, खेत के काम में हाथ बटाएगा।

खुले छत में सोकर तारो को जबजरस्ती गिनना,
अटनेली-गुलिडण्डे की निशानेबाजी,टायर हांकना
तितलीयो को पकड़ना और छोड़ देना प्रमुख खेला रहा।
छोटा सा एक लड़का सचिन तेंदुलकर द्वारा बार बार गेंद को हवा में उड़ाते हुए ब्लैक व्हॉइट टीवी के सामने चाचा भाइयो और गांव के लड़कों को ताली बजाते देख
हमने खुद से लकड़ी के बल्ला और पलोथिन जलाके गेंद बनाया।

मकई,अमरूद,बैर,जामुन,चन्ना के साग-झलरी, केतारी,बेल,आमझोरा प्रमुख विटामिन प्रोटीन रहा।

छिलकारोटी, पीठा,लिट्टी,ठेकुआ,अरसा,
दूध,ढाकर, महेर,लखठो,खाजा हमारा मिष्ठान।

एक दोस्त को साईकिल के अगली डंडे पर और दूसरे को पीछे कैरियर पर बिठा उबड़खाबड़ सड़को में हमने कितने रास्ते नापें हैं।
#ऐसी हजारो कहानियों से गुजरकर बड़े हुए कितना लिखा जाएं और सब याद भी नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं।   

हम अपने माता पिता को कभी नहीं बता पाए कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं क्योंकि हमें आई लव यू कहके गले लगना नहीं आता...महीनों वर्षो बाद घर जाकर पैर छू लेना और फिर पैर छूकर घर से निकल लेना हमारा सबकुछ होता है।

जूठा आश्वासन, कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया इस मामले में हम सदा मूरख ही रहे।

आज हम गिरते-सम्भलते, संघर्ष करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं, कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं।

हम दुनिया में कहीं भी हों लेकिन यह सच है, हमे हकीकतों ने पाला है, हम सच की दुनियां में थे।
हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम उस समय के सच्चे साथी थे।
वो समय और वैसे सच्चे नही मिलते अब ....
जीवन चलने का नाम है बस यूंही चल रहा है....
मेहनत ही पूंजी और मेहनती ही हमारी किस्मत है।

अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं, शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे है वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं।

कुसाशन,बाधाएं, विराम, पिछड़ेपन
शोषित झारखंड के कोख में मिला है लेकिन इस भीड़ से कुछ अच्छे सच्चे लोग निकलेगे और सब ठीक होगा जैसा कि रांची के एक कॉलेज में वार्ता के दौरान एक प्रश्न जबाब देते हुए राष्ट्रपति अब्दुल कलाम सर कहे थे।
"अच्छे लोग बहुत लंबे समय तक भीड़ का हिस्सा नही बने रहते, आगे निलकते है और भीड़ को सही मार्ग परास्त भी करते है"।


राहुल प्रसाद

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