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यादों से बुनी और बनी रचना




संस्मरण-
संस्मरण फिलहाल एक लोकप्रिय साहित्य विधा है। लोगों में संस्मरण लिखने की होड़ लगी हुई है। हिंदी में भी संस्मरण खूब लिखे जा रहे हैं। संस्मरणों की बढ़ती हुई लोकप्रियता पर टिप्पणी करते हुए विलियम जिंसर लिखते है कि ´´यह संस्मरण का युग है। बीसवीं सदी के अंत से पहले अमरीकी धरती पर व्यक्तिगत आख्यान की ऐसी जबर्दस्त फसल कभी नहीं हुई थी। हर किसी के पास कहने के लिए एक कथा है और हर कोई कथा कह रहा है।´´ हिंदी के रचनाकार भी संस्मरण लिखने में हाथ आजमा रहे है। विश्वनाथप्रसाद त्रिपाठी, काशीनाथसिंह आदि लेखकों ने हिंदी में संस्मरण विधा को नयी पहचान दी है।

संस्मरण, वर्तमान मे अतीत के बारे में लिखे जाते हैं। संस्मरण स्मृति पर आधारित होता है। संस्मरण लेखक अपने जीवन से संबंधित किसी घटना, व्यक्ति, अनुभव आदि की स्मृति के आधार पर पुनर्रचना करता है। संस्मरण अतीत और दोनों से संबंधित होता है। संस्मरण लेखक अतीत और वर्तमान के आधार पर अतीत की स्मृतियों को खोजता-खंगालता है और उनमें से किसी एक पर अपने को एकाग्र करता है। यह एकाग्रता व्यक्ति, घटना आदि किसी पर भी हो सकती है। संस्मरण में संपूर्ण जीवन नहीं होता। इसमें जीवन का कोई खंड या टुकड़ा ही आ पाता है। जीवन का कोई खास समय या घटना या व्यक्ति संस्मरण में उभरकर सामने आता है।

संस्मरण और सच्चाई में गहरा संबंध है। सच्चाई संस्मरण की पहचान है। पाठक संस्मरण में दिलचस्पी इसलिए लेते हैं, क्योंकि यह सच के करीब माना जाता है। संस्मरण में सच्चाई या यथार्थ स्मृति के माध्यम से आता है और कुछ लोगों का मानना है कि स्मृति में सच्चाई दब या कट-छंट जाती है इसलिए संस्मरण सच नहीं होता। स्मृति वर्तमान अतीत का स्मरण है इसलिए यह वर्तमान से आविष्ट और प्रभावित होती है और सच इसमें विकृत से जाता है। स्मृति और सच कथाकार अरुणप्रकाश के शब्दों में ´´एक दूसरे के रिश्तेदार जरूर है, पर ये जुड़वां संतानें तो कतई नहीं है।´´ स्मृति पूर्ण सत्य नहीं है इसलिए संस्मरण में सत्य नहीं, अक्सर सत्यांश होता है। विख्यात अंग्रेजी उपन्यासकार एंथनी पॉवेल ने इसीलिए एक जगह लिखा है कि ´´संस्मरण कभी भी पूरी तरह सच नहीं हो सकते, क्योंकि बीती हुई हर बात, हर घटना, हर परिस्थिति को संस्मरण में शामिल करना संभव नहीं है।´´

संस्मरण सहित सभी कथेतर गद्य विधाएं अपनी वस्तुपरकता के लिए जानी जाती हैं। कथाप्रधान साहित्यिक विधाएं, जैसे कहानी, नाटक, उपन्यास आदि में कल्पना सर्वोपरि होती है, लेकिन संस्मरण पूरी तरह कल्पना पर निर्भर नहीं होते। संस्मरण में तथ्य और वस्तुपरकता न हो तो, उसका महत्व कम हो जाएगा। संस्मरण लेखक अपनी स्मृति के सहारे अतीत को इस तरह पुनर्जीवित करता है कि कुछ हद तक उसकी वस्तुपरकता बनी रहती है। यह सही है कि वर्तमान के राग-विराग और सरोकार संस्मरण में अतीत को पूरी तरह तथ्यात्मक और वस्तुपरक नहीं रहने देते, लेकिन पाठक फिर भी उसमें तथ्यों की तलाश करता ही है। संस्मरण लेखक का आत्म, उसका दृष्टिकोण अक्सर यथार्थ की वस्तुपरकता को प्रभावित करता है। यहीं कारण है कि दो भिन्न संस्मरणकार एक यथार्थ को कई बार अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत करते हैं। कुछ लोगों के अनुसार तो संस्मरण वस्तुपरक नहीं, आत्मपरक लेखन है।

संस्मरण कलात्मक कथा साहित्य की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन इसके शिल्प ढांचे का इस्तेमाल इनमें होता है। संस्मरण में रोचकता और पठनीयता बनाए रखने के लिए संस्मरण लेखक अक्सर कथा तत्त्वों का इस्तेमाल करता है। वह संवाद, नाटकीयता और भाशायी कौशल का इस्तेमाल करके संस्मरण की पाठकों के लिए रोचक और पठनीय बनाता है। उर्दू में इस्मत चुगताई और हिंदी में काशीनाथसिंह, विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी आदि के संस्मरणों में कथा तत्त्वों का खूब इस्तेमाल हुआ है। इस्मत के संस्मरण अपनी नाटकीयता और भाशायी कौशल के कारण बहुत रोचक और पठनीय हो गए हैं। काशीनाथसिंह के संस्मरणों में रोचकता का तत्व बहुत अधिक है। उनकी संस्मरण पुस्तक काशी का अस्सी आद्यंत पठनीय है। चरित्रांकन, वातावरण निर्माण आदि भी कथात्मक विधाओं के तत्व है, जिनका प्रयोग संस्मरणों में होता है। महादेवी के संस्मरणों में चरित्रांकन बहुत अच्छी तरह से हुआ है। यह सही है कि संस्मरण में तथ्य और यथार्थ जरूरी है, लेकिन कथात्मक विधाओं के संवाद, नाटकीयता, चरित्रांकन, भाशायी कौशल आदि तत्वों से इनमें रोचकता और पठनीयता आ जाती है।

संस्मरण का स्वरूप और चरित्र अब बहुत बदल गया है। कभी संस्मरण का उद्देश्य प्रेरणा होता था, विख्यात और महान व्यक्ति अपने जीवन के संस्मण पे्ररणा देने के लिए लिखते थे, लेकिन अब स्थिति ऐसी नहीं है। अब संस्मरण जीवन के अज्ञात प्रसंगों-प्रकरणों के अनावरण की विधा हो गई है। अब कई बार संस्मरण का उपयोग लोग दृश्य पर अपनी उपस्थिति को ध्यानाकर्षक बनाने के लिए भी करते हैं। वे लोग जो विमर्श में नहीं हैं, इसमें अपनी वापसी के लिए भी संस्मरण लिखते हैं। विख्यात लेखक देनियल हेरिस के अनुसार ´´संस्मरण खुद के हाशियाकरण से निबटने की कोशिश है।´´ हिंदी की लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका हंस में प्रकाशित मेरे विश्वासघात श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित संस्मरण कमोबेश ऐसे ही हैं। संस्मरण अब साहित्य की परिधि से निकल कर जीवन के दूसरे क्षेत्रों में पहुंच गए है। फिल्म अभिनेता, क्रिकेट खिलाड़ी, उद्योगपति और राजनेता भी अब अपने संस्मरण लिख रहे है।

संस्मरण ऐसी साहित्यिक विधा है, जिसका कहानी, उपन्यास, नाटक आदि से आदान-प्रदान और अंतर्क्रिया का रिश्ता है। आत्मकथा और डायरी तो इसकी सहोदर विधाएं हैं। आत्मकथा तो एक तरह से संस्मरण ही है। यह अवश्य है कि संस्मरण आत्मकथा की तुलना में बहुत छोटा होता है। कुछ लोग संस्मरण को आत्मकथा का फ्लैश कहते है। जीवनी भी संस्मरण की साथी विधा है, क्योंकि दोनों अतीत पर एकाग्र हैं। संस्मरण अपने संबंध में खुद लेखक लिखता है, जबकि जीवनी दूसरे के द्वारा लिखी जाती है। रेखा चित्र तो कभी-कभी संस्मरण जैसे ही लगते हैं। यों रेखाचित्र में स्टिल लाइफ होती है, लेकिन बहुत यह संस्मरण जैसा हो जाता है। डायरी पश्चिम की लोकप्रिय साहित्यिक विधा है, लेकिन हिंदी में अभी इसकी जड़ें मजबूत नहीं हुई हैं। यह भी संस्मरण की निकट विधा है, अलबत्ता इसका पृथक् अनुशासन है। यह संस्मरण की तुलना में लंबी होती है और इसमें लेखक वर्तमान के साथ आगे बढ़ता है।

हिंदी में शुरू से ही संस्मरण लिखे जाते रहे हैं। अन्य कथेतर गद्य विधाओं की तुलना में संस्मरण की हिंदी में समृद्ध परंपरा है। आरंभिक संस्मरण लेखकों में पदमसिंह शर्मा, जनार्दन प्रसाद द्विज और शांतिप्रसाद द्विवेदी हैं, जिनकी क्रमश: पदमराग (1929), चरित्र रेखा (1943) और पंच चिह्न (1946) नामक संस्मरण रचनाएं उल्लेखनीय हैं। हिंदी संस्मरण को पहचान महादेवी वर्मा ने दी। उनकी दोनों कृतियों-स्मृति की रेखाएं (1943) और अतीत चलचित्र (1941) को हिंदी जगत में व्यापक सम्मान मिला। मोहनलाल महतो वियोगी, प्रभाकर माचवे और विष्णु प्रभाकर ने संस्मरण लिखे हैं। आजादी के बाद संस्मरण लेखन में गति आई। इस क्षेत्र में उल्लेखनीय काम राजेन्द्र यादव, कृश्णा सोबती, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथसिंह और कशीनाथ सिंह ने किया है। कृष्णा सोबती की हम हशमत, राजेन्द्र यादव की औरों के बहाने, रवीन्द्र कालिया की सृजन के साथी और दूधनाथसिंह की लौट आ ओ धार नामक संस्मरण कृतिर्यों की साहित्यिक जगत में खूब चर्चा हुई है। हिंदी संस्मरण विधा को नए रूप और चरित्र के साथ इधर काशीनाथ सिंह ने प्रस्तुत किया है। उनकी रचना याद हो कि न याद हो और काशी के अस्सी ने संस्मरण के स्वरूप और आस्वाद को कुछ हद तक बदल दिया है। विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी की संस्मरण पुस्तक नंगातलाई का गांव की भी हिंदी में खूब चर्चा हुई है।

हिन्दी में यात्रा संस्मरण तो बहुत हैं. उनमें से श्रेष्ठ दस कृतियां चुनना बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैंने अपने विवेक से जो रचनाएं चुनीं, वे इस प्रकार हैं :
1. यात्रा का आनंदः दत्तात्रेय बालकृष्ण 'काका' कालेलकर
काका कालेलकर शुरू में गुजराती में लिखते थे. उनकी 'हिमालय यात्रा' अनुदित होकर हिंदी में छपी थी. बाद में वो हिंदी में ही लिखने लगे.


घुमक्कड़, यात्रा, संस्मरण
Image captionहिंदी के मशहूर साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' के साथ ओम थानवी.

उन्हें यात्राओं में बहुत आनंद आता था. देश और विदेश में अनेक प्रवास उन्होंने लिपिबद्ध किए. भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के उपाध्यक्ष होने पर सुदूर विदेश यात्राओं का सुयोग भी मिला.
उनका कोई साढ़े तीन सौ पृष्ठों का संकलन 'यात्रा का आनंद' बहुत महत्त्वपूर्ण कृति है. वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से छपी थी.
संकलित यात्रा-वृत्तांत विभिन्न रूपों में हैं - संस्मरण की शैली में, लेख रूप में, पत्रों की शक्ल में.
करसियांग, नीलगिरि, अजंता, सतपुड़ा, गंगोत्री आदि की भारतीय यात्राओं के साथ अफ्रीका, यूरोप, उत्तरी और दक्षिणी अमरीका आदि की कोई सौ यात्राओं का ब्योरा हमें इस पुस्तक में मिलता है - जमैका, त्रिनिदाद और (ब्रिटिश) गयाना तक का.
लेखक की जिज्ञासु वृत्ति इन संस्मरणों की विशेषता है और जानकारी साझा करने की ललक भी. विदेश में अक्सर वो बाहर की प्रगति के बरअक्स भारतीय संस्कृति की निरंतरता को याद करते हैं.
2. किन्नर देश में: राहुल सांकृत्यायन
महापंडित राहुल सांकृत्यायन हिंदी में 'घुमक्कड़-शास्त्र' के प्रणेता थे. वो जीवन-भर भ्रमणशील रहे.
ज्ञान के अर्जन में उन्होंने सुदूर अंचलों की यात्राएं कीं. उन पर अनेक किताबें लिखीं.
'किन्नर देश में' हिमाचल प्रदेश में तिब्बत सीमा पर सतलुज नदी की उपत्यका में बसे सुरम्य इलाक़े किन्नौर की यात्रा-कथा है.
यह यात्रा उन्होंने साल 1948 में की थी. मूल शब्द 'किन्नर' है, इसलिए राहुलजी सर्वत्र इसी नाम का प्रयोग करते हैं.
कभी बस और घोड़े के सहारे और कभी कई दफ़ा पैदल भी की गई यात्रा का वर्णन करते हुए राहुलजी क्षेत्र के इतिहास, भूगोल, वनस्पति, लोक-संस्कृति आदि अनेक पहलुओं की जानकारी जुटाते हैं.
किताब का सबसे दिलचस्प पहलू वह है जहां वे अपने जैसे घुमक्कड़ों की खोज कर उनका संक्षिप्त जीवन-चरित भी लिखते हैं.
उन्हें एक ऐसा यात्री मिला जो पांच बार कैलाश-मानसरोवर हो आया था. उसने सैकड़ों यात्राएं कीं और डाकुओं ही नहीं, मौत से दो-चार हुआ और बच आया.
पुस्तक का अंतिम हिस्सा सूचनाओं से भरा है, जहां वो किन्नौर के अतीत, लोक-काव्य और उसका हिंदी अनुवाद, किन्नर भाषा का व्याकरण और शब्दावली समझाते हैं.
3. अरे यायावर रहेगा यादः सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
हिंदी साहित्य में रचनात्मक यात्रा-वृत्तांत की लीक डालने वाली कृति अब कमोबेश क्लासिक का स्थान पा चुकी है.
अज्ञेय की एक कविता ('दूर्वाचल') की पंक्ति इस यात्रा-वृत्तांत का नाम बनकर अपने आप में एक मुहावरा-सा बन चुकी है और 'यायावर' नाम लगभग 'अज्ञेय' का पर्याय.
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के भारत पर हमले की आशंका में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मुश्ताक़ अली आदि की तरह अज्ञेय भी देश-रक्षा में मित्र (अलाइड) देशों की फ़ौज में शामिल हो गए थे.
युद्ध ख़त्म होने पर लौट आए. फ़ौजी जीवन से आम जीवन में वापसी तक अज्ञेय ने अनेक भारतीय स्थलों की जो यात्राएं कीं, वे इस किताब में लिपिबद्ध हैं.
पूर्वोत्तर के जिन क़स्बों, जंगलों, माझुली जैसे द्वीप के बारे में उत्तर भारत का निवासी जहां आज भी बहुत नहीं जानता, अज्ञेय ने चालीस के दशक में उन्हें फ़ौजी ट्रक हांकते हुए नापा.


Image captionराहुल सांकृत्यायन ने 'किन्नर देश में' जैसा मशहूर यात्रा संस्मरण लिखा था. फोटो साभार: हिंदी बुक सेंटर, दिल्ली

असम से बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, तक्षशिला (अब पाकिस्तान में), एबटाबाद (जहां हाल में ओसामा बिन लादेन को मारा गया था), हसन अब्दाल, नौशेरा, पेशावर और अंत में खैबर - यानी भारत की एक सीमा से दूसरी सीमा की यात्रा; उसमें तरह-तरह के अनुभव, दृश्य, लोग और हादसे.
इस यात्रा के अलावा कुल्लू-रोहतांग जोत की यात्रा भी इस कृति में है, जब लेखक ने मौत को क़रीब से देखा.
उस संस्मरण का नाम ही है, 'मौत की घाटी में'. अब रोहतांग न मौत की घाटी रहा, न यात्रा उतनी दुगर्म. 'एलुरा' और 'कन्याकुमारी से नंदा देवी' वृत्तांत भी कृति में बहुत दिलचस्प हैं.
दक्षिण के बारे में भी उस ज़माने में यह यात्रा-वृत्तांत हिंदी पाठक समाज के लिए जानकारी की परतें खोलने वाला साबित हुआ था.
4. ऋणजल धनजलः फ़णीश्वरनाथ रेणु
यात्राएं केवल तफ़रीह के लिए नहीं होतीं. 'मैला आंचल' और 'परती परिकथा' जैसी ज़मीनी कृतियों के रचयिता रेणु ने दो संस्मरण लिखे, जो इस विधा को नई भंगिमा देते हैं.
दोनों में उनके अपने बिहार की जानी-पहचानी जगहों की यात्रा है, लेकिन नितांत भयावह दिनों की.
साल1966 में दक्षिणी बिहार में पड़े सूखे के वक्त उस क्षेत्र की यात्रा उन्होंने दिनमान-संपादक और कवि-कथाकार 'अज्ञेय' के साथ की.
बाद में साल 1975 में पटना और आसपास के क्षेत्र में बाढ़ की लीला को उन्होंने क़रीब से देखा. दोनों जगह उनके साथ उनकी नज़र विपरीत परिस्थितियों में भी मानवीय करुणा को चीन्हती है.
बाढ़ का इलाक़ा हो या सूखा क्षेत्र, उनका वर्णन हर जगह संवेदनशील कथाकार का रहता है. गंभीर पर्यवेक्षण, जो उनकी चिर-परिचित ठिठोली को भी उन हालात में भूलने नहीं देता.
संस्मरणों में पीड़ित तो आते ही हैं फ़ौजी, राहतकर्मी, पत्रकार, मित्र, पत्नी लतिकाजी की उपस्थिति उनको और जीवंत बनाती है. और तो और राहत सामग्री गिराता हेलिकॉप्टर भी जैसे कथा का एक चरित्र बनकर उपस्थित होता है.
5. आख़िरी चट्टान तकः मोहन राकेश
गोवा से कन्याकुमारी तक की यह यात्रा कथाकार और नाटककार मोहन राकेश ने सन् 1952-53 में की थी कोई तीन महीने में.
किताब उन्होंने ‘रास्ते के दोस्तों’ को समर्पित की, साथ में यह जोड़ते हुएः "पश्चिमी समुद्र-तट के साथ-साथ एक यात्रा".
देश के दक्षिण और समुद्र क्षेत्र की मोहन राकेश की यह पहली यात्रा थी.
जैसा कि रेल का ब्योरा लिखने से पहले वे चार पन्नों में कुछ पूर्व-पीठिका-सी बनाते हुए कहते हैं: "एक घने शहर (अमृतसर) की तंग गली में पैदा हुए व्यक्ति के लिए उस विस्तार के प्रति ऐसी आत्मीयता का अनुभव होने का आधार क्या हो सकता था?
केवल विपरीत का आकर्षण?" नए संसार को जानने की यह ललक उन्हें मालाबार की लाल ज़मीन, घनी हरियाली और नारियल वृक्षों से लेकर कन्याकुमारी की चट्टान तक लिए जाती है.
बीच-बीच में अनेक दिलचस्प हमसफ़र चरित्रों से दो-चार करते हुए. इस यात्रा-वृत्तांत को हम एक कहानी की तरह पढ़ सकते हैं.
6. चीड़ों पर चांदनीः निर्मल वर्मा
हिंदी लेखकों को तब विदेश यात्राओं का बहुत सुयोग नहीं मिलता था. अज्ञेय के बाद निर्मल वर्मा इस मामले में बहुत भाग्यशाली रहे.
अज्ञेय ने जैसे विदेश यात्राओं के संस्मरण 'एक बूंद सहसा उछली' में लिखे, निर्मल वर्मा 'चीड़ों पर चांदनी' के साथ इस विधा में सामने आए.
हालांकि इस पुस्तक में एक संस्मरण उनके जन्मस्थल शिमला पर भी है. पहले-पहल यह कृति साल 1962 में छपी थी.
विदेश यात्रा निर्मल वर्मा के लिए महज़ पर्यटकों की सैर नहीं रही. वे जर्मनी जाते हैं तो नाटककार ब्रेख्त उनके साथ चलते दिखाई देते हैं.


यात्रा संस्मरण, निर्मल वर्मा, अज्ञेय
Image captionकिताबों की दुकानों में यात्रा संस्मरण से जुड़ी पुस्तकों की मांग कहानी और उपन्यास पुस्तकों से अपेक्षाकृत कम होती है लेकिन साहित्यिक विकास यात्रा में इनकी अन्यतम ऐतिहासिक भूमिका होती है.

कोपनहेगन में दूसरे यूरोपीय देशों की मौजूदगी भी साथ रहती है. सबसे महत्त्वपूर्ण दो यात्रा-संस्मरण आइसलैंड के हैं.
आइसलैंड की हिमनदियों (ग्लेशियर) और क्षेत्र की साहित्यिक संस्कृति का आंखों देखा वर्णन हिंदी में इससे पहले शायद ही देखने में आया हो.
इन संस्मरणों के कई साल बाद निर्मलजी ने 'सुलगती टहनी' (कुंभ यात्रा) और डायरी की शक्ल में अनेक दूसरे यात्रा-संस्मरण भी लिखे. पर 'चीड़ों पर चांदनी' इस विधा में उनकी अनूठी कृति के रूप में हमेशा पहचानी जाती रही है.
7. स्पीति में बारिशः कृष्णनाथ
कृष्णनाथ अर्थशास्त्र के शिक्षक रहे और बौद्ध धर्म के अध्येता. मगर उनकी यायावर-वृत्ति उन्हें बार-बार हिमालय ले जाती रही है.
बौद्ध धर्म का अन्वेषण ही नहीं, हिमालयी अंचल के लोक-जीवन को उन्होंने बहुत आत्मीय और सरस ढंग से अपने अनेक संस्मरणों में लिखा है.
साल 1974 की यात्रा को कवि कमलेश साल 1982 में यात्रा-त्रयी के रूप में प्रकाश में लाए थे. श्रृंखला में सबसे पहली कृति थी- 'स्पीति में बारिश'. फिर 'किन्नर धर्मलोक' और 'लद्दाख़ में राग-विराग' छपी.
कुछ वर्ष बाद कुमाऊं क्षेत्र पर भी उनकी ऐसी ही तीन किताबों का सिलसिला देखने में आया. लाहौल-स्पीति, रोटांग (रोहतांग) जोत के पार हिमाचल प्रदेश का सीमांत क्षेत्र है. लोक-जीवन तो हर जगह अपना होता ही है, पर इस क्षेत्र के पहाड़ और घाटियां बाक़ी हिमालय से बहुत जुदा हैं.
कहते हैं, स्पीति में कभी बारिश नहीं होती. उस दुनिया में कृष्णनाथ बारिश ढूंढते हैं और पाते हैं, स्नेह की, ज्ञान की, परंपरा और संस्कृति की, मानवीय रिश्तों की बारिश.
कृष्णनाथ का गद्य अप्रतिम है. सरस और लयपूर्ण. छोटे-छोटे वाक्यों में वे अपने देखे को हमसे बांटते नहीं, हम पर अपने गद्य का जैसे जादू चलाते हैं. चंद पंक्तियां देखिएः
"विपाशा को देखता रहा. सुनता रहा. फिर जैसे सब देखना-सुनना सुन्न हो गया. भीतर-बाहर सिर्फ हिमवान, वेगवान, प्रवाह रह गया. न नाम, न रूप, न गंध, न स्पर्श, न रस, न शब्द. सिर्फ सुन्न. प्रवाह, अंदर-बाहर प्रवाह. यह विपाशा क्या अपने प्रवाह के लिए है? क्या इसीलिए गंगा, यमुना, सरस्वती, सोन, नर्मदा, वितस्ता, चंद्रभागा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी की तरह विपाशा महानद है? पुण्यतमा है? क्या शीतल, नित्य गतिशील सिलसिले में ही ये पाश कटते हैं? विपाश होते हैं?"
8. यूरोप के स्केच: रामकुमार
रामकुमार की ख्याति एक चित्रकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय है, लेकिन हिंदी में कथाकार के रूप में उनकी अपनी प्रतिष्ठा है.
साल 1950-51 में वे पेरिस के आर्ट स्कूल में रहे. उस वक़्त मौक़े-बेमौक़े वे यूरोप के देशों की सैर को निकलते रहे.
"नए-नए शहर, नई-नई भाषाएं, नए-नए लोग... और मैं अकेला निरुद्देश्य यात्री की भांति सुबह से शाम तक सड़कों, गलियों, कैफ़ों और कला-संग्रहालयों के चक्कर लगाया करता."
साल 1955 में वे फिर यूरोप गए. दोनों प्रवासों के कोई बीस यात्रा-संस्मरण इस पुस्तक में संकलित हैं.


Image captionपेशे से चित्रकार राम कुमार ने 1950-51 में अपनी यूरोप यात्रा के संस्मरण इस किताब में लिखे हैं. फोटो साभार: हिंदी बुक सेंटर, दिल्ली

क़ाहिरा की एक शाम, रोमा रोलां के घर में, फूचिक के देश में, टॉल्सटाय के घर में, दांते और माइकल एंजेलो का देश हर तरह से विशिष्ट यात्रा-वृत्तांत हैं.
कथाकार होने के बावजूद रामकुमार संस्मरण लिखते वक़्त तटस्थ रहते हैं और जानकारी और अनुभवों को किसी निबंध की तरह हमसे बांटते हैं. किताब में उनके बनाए रेखाचित्र पाठक के लिए एक अतिरिक्त उपलब्धि साबित होते हैं.
9. बुद्ध का कमण्डल लद्दाखः कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती अपनी अनूठी कलम लिए एक रोज़ दिल्ली से लेह को चल दीं. यह किताब उस यात्रा की डायरी समझिए.
इसका प्रकाशन इतना सुरुचिपूर्ण है कि हिंदी में शायद ही कोई और यात्रा-संस्मरण इस रूप में छपा होगा.
हर पन्ने पर रंगीन तस्वीरें, रेखांकन, वाक्यांश कृष्णाजी के गद्य की शोभा बढ़ाते हैं. वे अपनी पैनी और सहृदय नज़र से लेह के बाज़ार, महल, दुकानें, लोग, गुरुद्वारे, पुस्तकालय, प्रशासन, प्रकृति सबको निहारती चलती हैं.
सबसे ज्यादा उनकी नज़र टिकती है बौद्ध-विहारों के भव्य और कलापूर्ण एकांत पर. वे फियांग, हैमिस, लामायूरू, आलची, थिकसे के गोम्पा देखती चलती हैं.
जांसकर घाटी की परिक्रमा करती हैं और हमारे सम्मुख लद्दाख़ की संस्कृति, भाषा, लिपि, रीति-रिवाज, नदियों और दर्रों को हाथ की रेखाओं की तरह बड़ी आत्मीयता से परोसती चलती हैं.
करगिल को हमने भारत-पाक संघर्ष से पहचाना है. कृष्णा सोबती हमारे सामने उस करगिल का चेहरा ही बदल देती हैं.
10. तीरे तीरे नर्मदाः अमृतलाल वेगड़
सैलानी की यात्रा का तेवर अलग होता है और यात्री का अलग. अमृतलाल वेगड़ नर्मदा की विकट मगर सरस यात्राओं के लिए पहचाने गए हैं.
वे चित्रकार भी हैं और कला-शिक्षक भी. यात्रा के रेखांकनों-चित्रों से सुसज्जित उनकी यात्रा-त्रयी इस किताब के साथ पूर्णता पाती हैः सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा.
यात्राओं का यह सिलसिला वेगड़जी ने पत्नी कांताजी के साथ विवाह की पचासवीं सालगिरह के मौके पर शुरू किया था.
अंतराल में नर्मदा जैसे उन्हें फिर बुलाती रही और वे वृद्धावस्था में भी अपने सहयात्रियों के साथ निकल-निकल जाते रहे.
हम इन संस्मरणों में कदम-कदम पर नर्मदा के इर्द-गिर्द के लोकजीवन से दो-चार होते हैं. वेगड़जी के संस्मरणों में नदी नदी नहीं रहती, एक जीवंत शख्सियत बन जाती है जो हज़ारों-हज़ार वर्षों से अपने प्रवाह में जीवन को रूपायित और आलोकित करती आई है.
वेगड़जी का विनय देखिए, फिर भी कहते क्या हैं"कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जनम में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे. परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे."
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अन्य पठनीय यात्रा-संस्मरणः राह बीती: यशपाल; सफ़रनामा पाकिस्तान: देवेंद्र सत्यार्थी; यात्रा-चक्र: धर्मवीर भारती; अपोलो का रथः श्रीकांत वर्मा; सफ़री झोले में: अजित कुमार; कश्मीर से कच्छ तक: मनोहरश्याम जोशी; एक लंबी छांहः रमेशचंद्र शाह; रंगों की गंधः गोविंद मिश्र; नए चीन में दस दिनः गिरधर राठी; यूरोप में अंतर्यात्राएं: कर्ण सिंह चौहान; अफ़ग़ानिस्तानः बुज़कशी का मैदानः नासिरा शर्मा; सम पर सूर्यास्तः प्रयाग शुक्ल; एक बार आयोवाः मंगलेश डबराल; अवाक: गगन गिल; चलते तो अच्छा थाः असग़र वजाहत; नीले बर्फीले स्वप्नलोक में: शेखर पाठक; कहानियां सुनाती यात्राएं: कुसुम खेमानी; वह भी कोई देश है महाराजः अनिल यादव; दर दर गंगेः अभय मिश्र/पंकज रामेंदु

हिंदी के 10 सदाबहार नाटक

खड़ी बोली हिंदी के सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में कई महत्वपूर्ण नाटक लिखे गए और उनका सफलतापूर्वक मंचन किया गया. उन्हीं नाटकों में से मैंने अपने हिसाब से ये 10 सर्वश्रेष्ठ नाटक चुने हैं जो मंचन और पाठ दोनों ही लिहाज से मुझे बहुत प्रिय हैं.
1. अंधेर नगरी – भारतेंदु हरिश्चंद्र


Image captionभारतेंदु हरिश्चंद्र ने अंधेर नगरी, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति जैसी रचनाएं कीं.

सन् 1881 में मात्र एक रात में लिखा गया नाटक आज भी उतना ही सामयिक और समकालीन है.
बाल रंगमंच हो अथवा वयस्क रंगमंच – यह नाटक सभी तरह के दर्शकों में लोकप्रिय है. एक भ्रष्ट व्यवस्था और उसमें फंसाया जाता एक निरीह – क्या आज भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन आया है?
ये नाटक हिंदी रंगमंच में सबसे ज़्यादा मंचित नाटकों में से एक है.
2. ध्रुवस्वामिनी – जयशंकर प्रसाद
भले ही जयशंकर प्रसाद के नाटकों को मंच के अनुकूल न माना गया हो लेकिन ‘ध्रुवस्वामिनी’ हमेशा से रंगकर्मियों के बीच चर्चा का विषय रहा है.
मात्र नाट्य मंडलियों के साथ ही नहीं, स्कूलों कॉलेजों के छात्र-छात्राओं के बीच भी इस नाटक का ख़ूब मंचन हुआ है.
इस नाटक की सबसे बड़ी बात है उसका कथ्य – यदि पति नपुंसक है तो उसे नकारने की पहल स्त्री की तरफ़ से होती है और इसमें धर्म और शास्त्र भी उसका समर्थन करते हैं.
3. अंधा युग – धर्मवीर भारती
महाभारत की कथा के बहाने से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के विनाश, अनास्था और टूटते मूल्यों की महागाथा.
यहां तक कि ईश्वर की मृत्यु की घोषणा. एक काव्य नाटक होने के बावजूद ‘अंधा युग’ रंगमंच पर सबसे ज़्यादा प्रस्तुत होनेवाली कृति है.
4. आषाढ़ का एक दिन – मोहन राकेश
कलाकार अथवा रचनाकार के सामने सृजन या सत्ता में से किसी एक को चुनने का प्रश्न और फिर उसकी परिणति – यह एक ऐसा कथ्य था जिसने सभी रंगकर्मियों को झकझोर कर रख दिया.
शायद ही कोई निर्देशक या कोई रंगमंडली होगी जिसने इस नाटक को न खेला हो. यथार्थवाद का भारतीय स्वरूप क्या होना चाहिए, ‘आषाढ़ का एक दिन’ उसका सबसे अच्छा उदाहरण है.
5. बकरी – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


Image captionजयशंकर प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त जैसे प्रसिद्ध नाटक लिखे.

सातवें दशक में रंगमंच में लोकतत्वों को लेकर लिखे गए नाटकों में से सबसे सफल और चर्चित नाटक रहा ‘बकरी’.
इस नाटक में नौटंकी लोक नाट्य शैली के गीत-संगीत के माध्यम से एक आधुनिक कथ्य की प्रस्तुति की गई है कि नेता लोग किस तरह जनता को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन बनाते हैं.
सर्वेश्वर जी का ये नाटक रंगकर्मियों और दर्शकों में समान रूप से लोकप्रिय है.
6. एक और द्रोणाचार्य – शंकर शेष
आधुनिक शिक्षा पद्धति पर एकलव्य और द्रोणाचार्य की कथा के माध्यम से गहरा प्रहार किया गया है.
इस नाटक में दो समानांतर प्रसंग एक साथ चलते हैं. एक प्रसंग महाभारत का है तो दूसरा आज के एक प्राध्यापक और उनके परिवार का प्रसंग.
‘एक और द्रोणाचार्य’ हमारे अपने रोज़मर्रा के सरोकारों से जुड़ा एक सशक्त नाटक है.
7. कबीरा खड़ा बाज़ार में – भीष्म साहनी
कबीर की ज़िन्दगी, कबीर की कविता और उससे भी ज़्यादा एक कलाकार, महात्मा और तत्कालीन व्यवस्था के बीच टकराव का चित्र है ये नाटक.
आज के सांप्रदायिक दंगों और तनावों के बीच और भी सामयिक है ये नाटक.
8. महाभोज – मन्नू भंडारी
भले ही पहले यह रचना एक उपन्यास के रूप में की गई लेकिन बाद में एक नाटक के रूप में बेहद चर्चित और मंचित हुई.
इसकी वजह वही है कि नेता लोग किस तरह चुनाव जितने के लिए कथित रूप से निरीह लोगों की हत्या को भी हथियार बना लेते हैं.


Image captionमोहन राकेश ने आषाढ़ का एक दिन और आधे अधूरे जैसे मशहूर नाटक लिखे.

यह एक ऐसा कथ्य है जिसे हर आम आदमी ने भुगता और झेला है.
9. कोर्ट मार्शल – स्वदेश दीपक
हिंदी रंगमंच में दलित पात्र को केंद्र में रखकर लिखा गया बहुत सशक्त नाटक है ये.
मुक़दमे की कार्यवाही नाटक के शिल्प और संरचना को नाटकीय तनाव से भर देती है. नतीजा यह कि दर्शक बंधे से बैठे देखते रहते हैं.
10. जिस लाहौर नई देख्या – असग़र वज़ाहत
1947 के भारत विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया ये पहला नाटक है.
कहानियों और उपन्यासों में भले ही यह कथ्य बार-बार आता रहा हो, लेकिन नाटक में अपनी आँखों के सामने देखने वाले दर्शकों को बेहद जकड़ लेता है इसका कथानक.


हिन्दी समालोचना: उद्भव, विकास तथा स्वरूप''

आलोचना या समालोचना किसी वस्तु/विषय की, उसके लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, उसके गुण-दोषों एवं उपयुक्ततता का विवेचन करने वाली साहित्यिक विधा है। 
हिंदी आलोचना की शुरुआत १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेंदु युग से ही मानी जाती है। 
कबीरदास ने भी निंदक को नियरे रखने की बात कही है, इससे पता चलता है कि व्यक्तित्व में निखार लाने के लिए, रचना में निखार के लिए आलोचना का बहुत महत्व है|
आलोचना- किसी कृति या रचना के गुण-दोषों का निरूपण या विवेचन करना। 
समालोचना- साहित्यिक कृतियों के गुण-दोष विवेचन करने की कला या विद्या।
सरल शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि जब हम किसी बात को साधारण तरीके से कहें तो कथ्य और कलात्मक तरीके से कहें तो कविता या कहानी होती है वैसे ही|
जब से समाज बना, सभ्यता का विकास होने लगा, लेखन की ओर ध्यान जाने लगा तो अपनी अपनी सोच या सामाजिक परिस्थिति क के अनुसार साहित्य की रचनाएँ सामने आने लगीं| उन रचनाओं एवं विचारों से सबका सहमत होना जरूरी नहीं था| इस तरह से साहित्य में गुण-दोष विवेचन की प्रवृति जन्म लेने लगी और आलोचना की जरूरत महसूस हुई जिससे नकारात्मकता पर अंकुश लगाई जा सके|
आधुनिक आलोचक डॉ श्यामसुन्दर दास के अनुसार, “साहित्यिक क्षेत्र में ग्रन्थ को पढ़कर उसके गुण-दोष का विवेचन करना और उसके सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करना आलोचना कहलाता है। यदि हम साहित्य को व्याख्या मानें तो आलोचना को उस वयाख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।’’
आलोचना की इस परिभाषा पर किसी को आपत्ति नहीं होगी। संस्कृत शब्द ‘आलोचना’ का शब्दार्थ है - ‘गुण-दोष का विवेचन’, ‘परख’ या ‘समीक्षा’। पाश्चात्य और संस्कृत आलोचना पद्धतियों में सुन्दर सामंजस्य स्थापित करते हुए हिन्दी की आधुनिक आलोचना शुरु हुई।
आलोचना और समीक्षा पर्याय ही हैं, समीक्षा में बात रोचक तरीके से रखी जाती है जिसमें आलोचक का अपना मत भी शामिल होता है कि रचना की बेहतरी के लिए और क्या किया जा सकता है|
दूसरे शब्दों में हम कह सकते है आलोचना वह कर सकता है जिसे उस विधा की व्याकरणीय सम्यक जानकारी हो किन्तु समीक्षा वही कर सकता है जिसे व्याकरणीय जानकारी तो हो ही ,साथ ही वह स्वयं भी उस विधा विशेष में पारंगत हो
आलोचना अथवा समीक्षा के मूलतः दो भेद हैं - साहित्यिक एवं वैज्ञानिक समीक्षा।
साहित्यिक समीक्षा में आलोच्य पुस्तक पर आलोचक निजी अनुभूतियों एवं धारणाओं को कलात्मक शैली में प्रस्तुत करते हैं, जबकि वैज्ञानिक समीक्षा में आलोचक आलोच्य पुस्तक का प्रामाणिक विश्लेषण करते हैं और संतुलित निर्णय देते हैं।
वर्गीकरण के आधार पर हिन्दी समालोचना के दो वर्ग हो सकते हैं - सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक
1. सैद्धांतिक आलोचना-"...युगीन साहित्य के आधार पर साहित्य.संबंधी सामान्य सिद्धांतों की स्थापना का प्रयास किया जाता है...। "मानविकी पारिभाषिकी कोश, साहित्य खंड, पृ.65)

2. व्यवहारिक आलोचना-जब सिद्धांतों के आधार पर साहित्य की समीक्षा की जाय, तो उसे व्यावहारिक आलोचना का नाम दिया जाता है। व्यावहारिक आलोचना कर्इ प्रकार की हो सकती है-

व्यावहारिक आलोचना कर्इ प्रकार की हो सकती है-

व्याख्यात्मक आलोचना- गूढ़.गंभीर साहित्य.रचना के विषय, उसकी भाषा, शिल्प को सरल.सुबोध भाषा में स्पष्ट करना।

जीवन चरितात्मक आलोचना- किसी भी रचनाकार का साहित्य किसी न किसी रूप और किसी न किसी मात्राा में उसके अपने जीवन, घटनाओं से प्रभावित होता है। अतएव जीवन.चरितात्मक आलोचना में किसी रचनाकार की कृतियों का उसके जीवन और विशिष्ट घटनाओं की पृष्ठभूमि में मूल्यांकन किया जाता है।

ऐतिहासिक आलोचना-ऐतिहासिक आलोचना के अंतर्गत वे आलोचनाएँ आती हैं जिनमें किसी रचना का मूल्यांकन रचनाकार की जाति, वर्ग और उसके समाज के आधार पर किया जाता है। इस आलोचना.पद्धति का आरंभ प्रसिद्ध इतिहासकार तैन ने किया था।

रचनात्मक आलोचना- रचनात्मक आलोचना वह कहलाती है जब आलोचक किसी रचना या साहित्यकार के संपूर्ण साहित्य को आधार बना कर आलोचना तो करता है किंतु वह आलोचना उस रचना या साहित्य की मात्रा व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं होती बलिक पाठकों को वह आलोचना स्वतंत्रा रचना का सा आनंद प्रदान करती है।

प्रभाववादी आलो
चना-प्रभाववादी आलोचना में आलोचक कृति को भूलकर उसके द्वारा उपन्न प्रभाव की मार्मिक आलोचना करने में तत्पर होता है।-डा. नगेन्द्र

तुलनात्मक आलोचना- जब किसी रचना या साहित्य की तुलना किसी अन्य रचनाकार, या किसी दूसरी भाषा के साहित्य से की जाए तो तुलनात्मक आलोचना होती है।

सैद्धांतिक आलोचना का विकास मध्यकाल में हो गया था। अकबर के दरबार में कुछ दरबारी कवियों ने काव्य विवेचन में रसिकता को महत्त्व दिया। केशवदास के विवेचन में काव्य-शास्त्र की शिक्षा देने की नियति थी। तत्पश्चात हिन्दी साहित्य में समीक्षा के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र दिखाई पड़ते हैं, जिन्होंने 1883 में ‘नाटक’ लिखकर हिन्दी साहित्य की आलोचना में एक नई शुरुआत की। तत्पश्चात समालोचना में नव-विकास हुआ और आलोचना के स्वरूप में कई नए तत्त्वों के समावेश हुए। हिन्दी समीक्षा गम्भीर होने लगी तथा अंग्रेजी समालोचना का प्रभाव पड़ने लगा।
ड्राइडन (1631-1700) अंग्रेजी के प्रमुख गद्यकारों में थे। उनकी आलोचना शैली सुलझी हुई और सुव्यवस्थित थी। वह चिंतन को सहज और तर्कसंगत अभिव्यक्ति देते हैं। 
समय के साथ साथ हिन्दी आलोचना में भी तर्कसंगत स्पष्टता का प्रभाव दिखने लगा|
आलोचना का पुस्तकरूप ‘हिन्दी कालिदास की आलोचना’ महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखी। उसी समय ‘नैषध-चरित चर्चा’, ‘विक्रम-चरित-चर्चा’ नामक पुस्तकें भी आईं। परन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा – इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों को दूसरे मुहल्लेवालों को परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए, स्वतन्त्र आलोचना के रूप में नहीं। द्विवेदी जी ने ‘कालिदास की निरंकुशता’ में निर्णयात्मक आलोचना प्रस्तुत की। हिन्दी में वैज्ञानिक समालोचना के जन्मदाता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल माने गए हैं। उनके समय से हिन्दी समालोचना में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, ‘तुलसीदास’, ‘जायसी’, तथा ‘सूर’ पर समालोचना लिखकर इसे नया आयाम दिया, जो हिन्दी समालोचना का चरम माना गया। उन्होंने लेखकों और कवियों के मनोभावों का सूक्ष्म निरीक्षण कर पूरे पाण्डित्यपूर्ण तरीके से आलोचना की एवं अलंकार-शास्त्र को मनोवैज्ञानिक तरीके से प्रस्तुत किया।
आलोचना के मापदंड समय, परिसिथति के अनुसार बदलते रहे हैं। भारतीय काव्यशास्त्रों के विभिन्न संप्रदायों (रस, ध्वनि, अलंकार, वक्रोक्ति) के आचार्य इस विषय पर चर्चा करते रहे हैं कि काव्य की आत्मा क्या हो? भक्तिकाल में अनुभूति काव्य की कसौटी रही तो रीतिकाल में चमत्कार ओर कलाकारी। आधुनिक काल में सामजिक यथार्थ और उस की अभिव्यक्ति आलोचना का केन्द्र बनी। दृषिट, विषय और अभिव्यä मिें बदलाव आया, सौंदर्य के प्रतिमान बदले, कविता छंदों के बंधन से मुक्त हुर्इ और उसमें आंतरिक लय की खोज की जाने लगी। परंपरागत धीरोदात्त नायकों और सुंदर.कोमल नायिकाओं का स्थान आम आदमी ने ले लिया, उसके संघर्षों में सौंदर्य दिखार्इ देने लगा। तदनुसार आलोचना के मानदंड भी समय, सोच और परिसिथति के अनुसार बदलते रहते हैं।
 रचनाकार और आलोचक का सम्बन्ध गुरु -शिष्य जैसे होना चाहिए |
आलोचना में कोई भी पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिये, ना तो लेखक की तरफ से और ना ही आलोचक के दिमाग में।
रचनाकार को आलोचना उतना ही स्वीकार करनी चाहिए जितना उसका दिल स्वीकार करे| आलोचक को भी धैर्यपूर्वक लेखक की बात समझना चाहिए और उसे प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाना चाहिए|
अत्यधिक आलोचना कभी कभी रचनाकार को हतोत्साहित भी कर देती है| ऐसी स्थिति से दोनो को बचना चाहिए|
आलोचकों को भाषा शैली में दुरूहता, अस्पष्टता एवं जटिलता से बचना चाहिए। 
आलोचना हमेशा स्पष्ट, निर्भीक एवं ईमानदार होनी चाहिए।


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