दशरथ मांझी - A name of true love



शाहजहाँ का नाम एक ऐसे आशिक के तौर पर लिया जाता है 
जो हर महबूब चाहती है कि उसका आशिक शाहजहाँ जैसे हो जो ताजमहल बना सके.....यहाँ पर तो सही है आशिक ऐसा हो जो महबूबा के लिए विश्व के सबसे खूबसूरत चीज बना सके जरूरत पड़ने जान भी दे सके....मगर वो शाहजहाँ जैसा हो ये बात हमे हजम नही होता...
यहा पर प्रश्न उठता है कि क्या शाहजहाँ आशिक नही था??
जबाब हमेशा होगा नही !! क्योंकि आपने इतिहास को समझ नही अन्यथा किसी भी परिपेक्ष्य में शाहजहा सच्चा आशिक
True love की निशानी है ही नही ...शाहजहाँ का 14वे पुत्र 
औरंगजेब था जरा सोचिए जो ब्यक्ति अपनी मासूका से मोह्हबत करेगा वो बीबी को हर वर्ष इतना बड़ा दर्द कैसे दे सकता है??? ये सम्भव है तो सिर्फ दबाव में या गुलाम बना कर।और भी स्टोरी है शाहजहाँ किए कारनामे इतिहास पढ़िए....

शाहजहाँ ने अपनी चाहत और  सौंदर्यबोध की अनुभूति के लिए जनता के खून पसीने की कमाई को पत्नी का मकबरा बनाने में खर्च डाला तो दूसरी तरफ मांझी साहेब ने ताउम्र अपनी चाहत और खुशिओं को अपनी पत्नी की याद में जनकल्याणार्थ कार्यों हेतु  पहाड़ के  सीने को चीर  कर रास्ता बनाने मैं लगा दिया ।शाहजहाँ ने दूसरों की ख़ुशी को अपने स्वार्थ के लिए कुर्बान कर दिया परंतु मांझी जी ने अपनी ख़ुशी को दूसरों की खुशहाली के लिए कुर्बान कर दिया।मांझी जी ने अपनी पत्नी की याद में पहाड़ को चीरकर रास्ता बनाया है ,जो एक कालजयी कृति का निर्माण  है।

ये कैसी दुनिया हैं और इसमें रहनेवाले कैसे स्वार्थी और खुदगर्ज इंशान हैं। हम किसी व्यक्ति को वक्त के थपेड़ो से जूझने एवं घायल होने के लिए छोड़ देते हैं ,परंतु उसकी शोहरत को भुनाने के लिए भगवान बना देते हैं।यही माउंटेन मैन , स्व.दशरथ मांझी जी के साथ हुआ।बिहार के एक सुदूर सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े गांव में , ईलाज के आभाव में, उन्हें अपनी पत्नी को खोना पड़ता है ।क्योंकि उनके गांव और बहुत दूर पर स्थित मार्ग -जो शहर को उनके गांव से जोड़ता है के बीच पर्वत की दीवार खड़ी थी।इस घटना ने उनके कोमल ह्रदय  को घायल कर दिया ।इस पीड़ा ने उनके अन्दर अदम्य साहस को जन्म दिया ।उस कर्मयोगी ने अपनी तपस्या से पर्वत के सीने को अकेले चीर कर मार्ग बना डाला। उस व्यक्ति ने अपने जीवन का बहुमूल्य वक्त सर्वकल्याण में लगा दिया,परन्तु उस दौरान किसी ने कोई खोज-खबर भी लेने की कोशिस नहीं की । कितने खुदगर्ज हैं हम! काश हम कथित बुद्धजीवियों के पास एक सही सोच और नेक नियत तो होती?इनके इंतकाल के बाद इनकी शोहरत को भुनाने के लिए कैसे लोग गिद्ध की तरह मंडराने लगे।किसी व्यक्ति के सिद्धान्तों एवं उसकी त्याग-तपस्या को भी भुनाने में भी वक्त नहीं लगा ,और उसे फ़िल्म का एक रूप दे दिया गया।टैक्स फ्री करने से फायदा किसे हुआ?अच्छा होता टैक्स द्वारा अर्जित पैसों को माझी जी के गांव के विकास में लगा दिया जाता।मांझी जी ने पूरा वक्त समाज के कल्याण में लगा दिया।हमारा कर्त्तव्य है कि उनके परिवार को हम उचित मान -सम्मान दे जिसके वो अधिकारी हैं।अपने ह्रदय में एवं पाठ्य पुस्तकों में  स्थान दें। आने वाली पीढ़ी को इस आधुनिक भगीरथ के बारे में जानकारी हो-अगर इन्सां चाहे तो पर्वत के ह्रदय में भी छेद कर सकता है।
हमें स्व. मांझी के कृतित्व पर सदैव  गर्व रहेगा।
इस कीर्तिमान कार्य के लिए माझी साहब 👏कोटि कोटि नमन हैं आपको।
राहुल प्रसाद


मानव जब जोर लगाता हे, पत्थर पानी बन जाता हे ...

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