#अधूरी ख़्वाहिशें -18 " दिसम्बर की रात



मेरे साथ जुड़ी हैं कुछ मेरी ज़रूरतें उनमें एक आप  हो।
चाहूँ या चाहूँ : जब ज़रूरत हो आप , तो आप हो मुझमें और पूरे अन्त तक रहोगे ।

पल्लवी और राज...एक लड़की, एक लड़का...एक नदी,  एक सागर...एक बारिश, एक बादल... एक प्यार, एक इंतज़ार...एक चाँद, एक गगन... एक चाहत, एक मिलन...दो शरीर, एक मन...दो दिल, एक धड़कन... दोनों बहुत दिनों तक अलग कैसे रह सकते हैं? उन्हें एक होना ही पड़ता है। ये मुहब्बत है, इसे जीना ही पड़ता है। ये एक ऐसा ख़्वाब है, जिसे देखना ही पड़ता है। मुहब्बत में स्टेटस् ही सब कुछ नहीं होता मुहब्बत में बेताब मिलन की कहानी को अपने अंजाम पर पहुँचनी होती है। कुछ कहनी होती है, कुछ सुननी होती है। इसके बिना जीवन, जीवन नहीं होता। घर होते हैं, कमरे होते हैं, यदि नहीं होती है मुहब्बत, तो जीना मुश्किल हो जाता है। सब कुछ होते हुए लगता है कुछ भी नहीं है। न कोई छूने वाला, न बात करने वाला, न कोई समझने वाला। ऐसे में याद आता है वो दिल और वो दिल वाला। थोड़ा-थोड़ा सब कुछ ज़रूरी है। थोड़ी-सी हँसी, थोड़ी-सी ख़ुशी, थोड़ा-सा पैसा और ढेर सारा प्यार। प्यार के बिना दिल और दिमाग़ काम नहीं करता है। प्यार टॉनिक् है।  यह टॉनिक् बहुत सस्ता भी है, बहुत महँगा भी है। यह होश में भी लाता है, मदहोश भी करता है। यह उतना ही ज़रूरी है, जितनी ज़िंदगी की साँसें।

रजाई वाली  रातें- और उसकी बातें___
ख़ुशी की  डा य री से***
                       
#पूस_की_कुहासे भरी रात...चारो और सफेद ही सफेद और धुँआ-धुँआ सा हुआ है...पथ पर चलने वालों को कुछ नही दिखाई दे रहा...घरेलू कार्य समाप्त करते मैं कमरे में चली गयी...गर्म कपड़ों का लबादा यानि स्वेटर को उतार कर सीधे बिस्तर पर ...वाह्ह ! ये गद्दीदार गदा...कपास की असली रुई वाली तकिया...ऊपर से जयपुरी रजाई...बालों को खोलकर बिखेर देती हूँ...तकिया तो मैं दो ही रखती हूँ ...सर्दी की रात बड़ी प्यारी होती है न...मन में यही सोच-सोच पुलकित हो रही हूँ...
      उफ्फ ये निगोड़े ख्वाब भी न कभी पीछा नही छोड़ते.
तुम जो इतना प्यार न करते हमे! तो मैं तेरी  मीरा सा दीवानी न होती!!!
 जगती आँखों में आकर हलचल मचाते हो तो कभी सोती हुई आँखों में भी आ जाते...होना क्या था अब ...ऐसे में भला तुम्हारी याद न आये...कभी हुआ है ऐसा...भोर हो और चिड़ियाँ न चहके...हवा चले और पुष्प हिले नही ..शांत नदी के जल में कंकड़ मारो और लहरे वलय न बनाये...नही न ; वैसे ही इस तरह सर्दी की वेला में तुम्हारी यादें कैसे साथ छोड़ दे...
                 जुल्फों को हटाके तकिया लगा लेती हूँ...एक तकिये को बाहुपाश में बाँध के...पैरो को मोड़ लेती हूँ और करवट फेरते हुए लग रहा कि तुम पास हो...हाय! ये मौसम भी न कितना सताता है ...जितनी ठण्ड से नही समस्या हो रही...उससे अधिक तो तुम्हारी इन हरकतों से...फिर भी तुम्हारी ये शैतानियाँ अच्छी लगती है...कभी जुल्फों तले सोना...कभी होंठो को छू लेना मात्र...गर्म साँसों को करीब लाकर महसूस कराना...पैरो से पैरो का योगा कराना...वाह्ह! सर्दी ...लख-लख शुक्रिया तेरा...

ठंड मौसम की है ये अंधेरी घटा
बिखरी सब ओर कुहरे की देखो छटा
पथ प्रदर्शन भी मुश्किल है इस रात में
आ मेरे साथ मेरा ये रस्ता बँटा।।

पथ पे चलते पथिक रास्ता खो रहे
कुछ घरों में सिकुङकर पङे सो रहे
शबनमी बूँद आँखो को तर कर गई
हम उन्ही बूँद से नींद को धो रहे।।


वाह!! गद्दे की रूई कपासी लगी
पीठ उसपे छुई तो उबासी लगी
एक तकिया लिया बाँह-आगोश में
एक तकिया मेरे सिर की दासी बनी।।

शांत जल में चला एक पत्थर अजब
उठ गई तब हिलोरें गजब है गजब
याद वैसे तेरी मन को भी छू गई
हो गया दिल ये बैचैन और बेसबब।।

हो पवन, फूल हीलें न तो क्या करें
भोर में पंक्षी बोले न तो क्या करे
यदि ठिठुरती तमस का बहाना मिले
तू मेरा मन खंगोले न तो क्या करे।।

गेसुवें खोलकर मन महकने लगा
ख्वाब फिर से तिरा, साथ चलने लगा
डूबकर तेरी यादो में मैं खो गया
नींद कब लग गई, जाने कब तक जगा।।

मैं मेरे मित्र से मिल के अब खुश हुई
हरकते ये पुरानी सी हैं पर नई
होंठ से जो मिली पाँव पर ही रुकी
हाय!! सर्दी, रजाई में भी घुस गई।।

फिर तो मेरा मचलना सिकुङना शुरू
हरकतों से तेरी, देख बचना शुरू
नींद आई दुबारा हुई कश्मकश
गर्म साँसो का महसूस करना शुरू।।

काश!! ये पल न बीते ठहर जाय यूँ
है असंभव मगर रुत बहक जाय यूँ
कौन रोके समय तेरा पहिया यहाँ
है गुजारिश मेरी तू बदल जाय यूँ।।

नीद नयना भरे देखती रह गई
गर्म धारा नयन से मेरे बह गई
ओ रे मोहन तेरी बंसी जैसे बजी
आत्मा, तुझसे मिलना है, ये कह गई।।

पर सपन की मेरे आजमाइश करो
ऐ मेरे मन जरा सा सिफारिश करो
नींद टूटे सबेरा हो उससे प्रथम
हे कन्हैया मेरी पूरी ख्वाहिश करो।।
हे कन्हैया मेरी पूरी ख्वाहिश करो।।।
       
     काश! ये पल यही ठहर जाए...मैं...तुम...सर्दी भरी रात...फिर क्या ऐसा सम्भव ही नही न...समय के दौड़ते घोड़े को कौन रोक ले भला...अलार्म बज उठता है...ट्रिन...ट्रिन..न चाहते हुए भी आँख खोलती हूँ और घड़ी में 6 बजे है...माँ कहती है उठ री बाँवरी. ट्यूशन..नही जाना क्या...

सुनिए ठण्ड के मौसम में सपने न देखा करे.
ये पुवाल की आग की तरह होते है...जला नही कि खत्म...और वही वाक्य फिर से मन दुहराता है...
  
कुछ ख़्वाहिशें अधूरी ही बेहतरीन होती है..
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आज अरसे बाद फुरसत मिली
तारे निहारने की,
आंखें खोज रही थी वो तारा,
बचपन मे जो देखा था,
वह लगता बहुत प्यारा था,
वो लगता निराला था,
सपने देखता था कि एक दिन,
उसे तोड़ कर लाऊँगा,
फिर उसकी रोशनी से अंधेरा मिटाऊँगा,
पर अब वो तारा नहीं दिखता,
शायद किसी ने तोड़ दिया,
या शायद अब इन आँखों ने,
सपना देखना छोड़ दिया।

  उसे जब याद आएगा  वो पहली बार का मिलना,
तो पल पल याद रखेगा  या सब कुछ भूल जायेगा  ,
उसे जब याद आएगा गुजरे मौसम का हर लम्हा,
तो खुद ही रो पड़ेगा  या खुद ही मुस्कुराएगा 

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