#अधूरी_ख़्वाहिशें-10 पतंग और डोर
अधूरी ख़्वाहिशें-10
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पतंग और डोर
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पतंग उड़ाना,कंचे,गुल्ली-डंडा इत्यादि मेरे प्रिय खेल थे...जिसमे पतंग उड़ाना और कंचे मेरे सबसे करीब.पर सीखना सबसे कठिन
..छत के ऊपर बैठकर, घण्टों ,आसमान में उडती पतंगों को देखा करता ...तरह-तरह की पतंगें दिखती...कुछ तो था इस खेल में जो मुझे खिंच लेता था...उन सभी पतंगों के अजीब-गरीब नाम...जैसे-गिलास,गिद्ध,दो बाज,तीन बाज,शेर छाप,झिल्लीदार इत्यादि...
1 रूपये से अधिकतम 3 रूपये तक में बढ़िया पतंग मिल जाती थी...उन दिनों मुझे पतंग उड़ाने की कला नही आता था ...और तुम ( गोलू दोस्त ) एक नंबर के पतंगबाज थे...मोहल्ले के सभी लड़के तुमसे ही पतंग की गाँठ लगवाते थे...
मैं अक्सर पूछा करता कि इन पतंगों को उड़ाते कैसे हो? मुझे भी सिखाओ...तुम यही कहते कि देखो पढ़ाकू बाबा अभी तुम नवसिखिया हो...मैं उड़ा दूंगा पतंग और तुम ढिल्ली छोड़ना और देखना...मुँह बिचकाते हुए
मुझे बहुत गुस्सा आता...पर कर भी क्या सकता था ...
एक रोज मेरी जिद के आगे तुम झुक गये और कहने लगे अच्छा आओ आज सिखायेंगे...मैं झट से तैयार हो गया और बहुत खुश भी...पहले लटाई को निचे रख दिए फिर मेरे हाथ में डोर पकड़ा दिए और पतंग को ऊपर कि तरफ उड़ाये और मेरे हाथ को पकड़ के ही डोर को खिंचवाने लगे...5 बार मशक्कत के बावजूद उस रोज मैं पतंग न उड़ा सका ...और उदास होकर बैठ गया ...तुम सिर्फ यही कहे थे कि प्रयास करते रहो सफल होना ही है...जैसा मै एग्जाम समय कहा करता था
अगले दिन पुनः यही कोशिश शुरू...लेकिन फिर असफलता ही मिली...परन्तु उसके अगले रोज मैं भी ठान लीया आज पतंग उड़ाके ही चैन मिलेगा मुझे...तुम अभी तक नही आये...इंतज़ार करते-करते शाम हो गया ...तुम नही आये...
अब तो ये खेल मेरे दायें हाथ का खेल हो गया...घण्टों पतंग उड़ाता ...बिन पूँछ लगाये ही...छत पे जाकर दुसरो के पतंगों के भी जायजे लेता ...जो भी पतंगबाज आते उनसे केवल पतंग पर व्याख्या होती...जैसे कोई थीसिस लिखनी हो मुझे...हाँ कुछ दर्शन की बाते होती पतंगों पे...
इसी बिच गोलू ने कहा तुम्हे याद है वो पतंग कहानी जो पिछले साल मकर संक्रांति के बारे , क्लास में सर सुना रहे थे और तुम अंत में रो गए थे। नहीं मुझे कुछ याद नहीं है ---- सुनाओ न तुम। गोलू- तुम भी न मेरी तरह कमजोर हो चुटकुला खेल और कहानी में जैसे की मेरा मैथ वीक है.....
चलो ठीक है कहानी सुनाता हु पर इस बार मत रोना। ......
बहुत समय पहले की बात है। गुजरात में एक गुरु का आश्रम था। दूर-दूर से विद्यार्थी उनके पास अध्ययन करने के लिए आते थे। इसके पीछे कारण यह था कि गुरुजी नियमित शिक्षा के साथ व्यावहारिक शिक्षा पर भी बहुत जोर देते थे। उनके पढ़ाने का तरीका भी अनोखा था।
उसे देखकर ऐसा लगा
मेरे मन में प्यार के लड्डू फूटने लगे थे ऐसा ख्वाब की एक परी कही और मेरे नाम की पतंग उड़ा रही होगी। ...... एक दिन हम दोनो पतंग उड़ायेंगे|
सपना साकार हुआ वो परी तों तुम मिली
मगर साथ में साथ में पतंग उड़ाना नशीब में न था!
आज मकरसकान्ति है और पतंग उड़ाते उड़ाते तुम याद आने लगे
फिर क्या पतंग उड़ाते उड़ाते
लगता ये डोर तुम हो और पतंग मैं...तुम सदा डोर की भाँति पतंग को पकड़े रहते हो...पतंग का पूरा अस्तित्व डोर से है...पतंग आकाश में घूमती है...स्वछन्द होकर नाचती है...एक मात्र डोर के ही सहारे तो...तुम भी तो मुझे डोर की तरह पकड़ के सिखाते हो...खुद से बांधे रखते हो ताकि मेरा दिशा भटक न जायें...तुम इतने सहूलियत से धागा खींचते हो कि न धागा टूटता है न पतंग का साथ छुटता है...
पतंग उड़ाने में असली मजा तभी है जब पेंच लगाया जाय...बिन पेंच लगाये मुझे चैन नही मिलता...तुम तो जानती हो न...मेरी पतंग कोई काट नही पाता...आज भी वही होगा...तुम खुश रहो केवल और देखते रहो...
मैं यही बोला -
मेरा ध्यान पेंच लगाने पर था ही नही...तुम साथ थे बस और क्या चाहिए मुझे...पतंग स्वतः मस्ती से उड़ रही थी क्योंकि तुम डोर बनके मुझे पकड़े थे...तुम पर विस्वास था कि तुम ये डोर नही तोड़ोगे...
इसी तरह पेंच लगाते-लगाते उस रोज पतंग कट गयी...और पतंग डोर से बिछड़ गयी..
..
तभी याद आया की
देखो मेरी तो ख़्वाहिश ही ऐसी होती है जो पूरी ही नही होती है...आज भी नही हुई...ऐसा लगा की जिंदगी भी कटी पतंग की तरह चल रहा है /
जिसे हम पा नही सकतें....उसे सोचकर ही खुश हो जाना ही इश्क है ..
खैर कुछ
ख़्वाहिशें अधूरी ही बेहतरीन होती है
राहुल प्रसाद
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पतंग और डोर
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पतंग उड़ाना,कंचे,गुल्ली-डंडा इत्यादि मेरे प्रिय खेल थे...जिसमे पतंग उड़ाना और कंचे मेरे सबसे करीब.पर सीखना सबसे कठिन
..छत के ऊपर बैठकर, घण्टों ,आसमान में उडती पतंगों को देखा करता ...तरह-तरह की पतंगें दिखती...कुछ तो था इस खेल में जो मुझे खिंच लेता था...उन सभी पतंगों के अजीब-गरीब नाम...जैसे-गिलास,गिद्ध,दो बाज,तीन बाज,शेर छाप,झिल्लीदार इत्यादि...
1 रूपये से अधिकतम 3 रूपये तक में बढ़िया पतंग मिल जाती थी...उन दिनों मुझे पतंग उड़ाने की कला नही आता था ...और तुम ( गोलू दोस्त ) एक नंबर के पतंगबाज थे...मोहल्ले के सभी लड़के तुमसे ही पतंग की गाँठ लगवाते थे...
मैं अक्सर पूछा करता कि इन पतंगों को उड़ाते कैसे हो? मुझे भी सिखाओ...तुम यही कहते कि देखो पढ़ाकू बाबा अभी तुम नवसिखिया हो...मैं उड़ा दूंगा पतंग और तुम ढिल्ली छोड़ना और देखना...मुँह बिचकाते हुए
मुझे बहुत गुस्सा आता...पर कर भी क्या सकता था ...
एक रोज मेरी जिद के आगे तुम झुक गये और कहने लगे अच्छा आओ आज सिखायेंगे...मैं झट से तैयार हो गया और बहुत खुश भी...पहले लटाई को निचे रख दिए फिर मेरे हाथ में डोर पकड़ा दिए और पतंग को ऊपर कि तरफ उड़ाये और मेरे हाथ को पकड़ के ही डोर को खिंचवाने लगे...5 बार मशक्कत के बावजूद उस रोज मैं पतंग न उड़ा सका ...और उदास होकर बैठ गया ...तुम सिर्फ यही कहे थे कि प्रयास करते रहो सफल होना ही है...जैसा मै एग्जाम समय कहा करता था
अगले दिन पुनः यही कोशिश शुरू...लेकिन फिर असफलता ही मिली...परन्तु उसके अगले रोज मैं भी ठान लीया आज पतंग उड़ाके ही चैन मिलेगा मुझे...तुम अभी तक नही आये...इंतज़ार करते-करते शाम हो गया ...तुम नही आये...
इंतेजार भी कितनी अजीब चीज हे ना खुद करे तो,
गुस्सा आता है, और.. दूसरा कोई करे तो अच्छा लगता है।
अकेले ही कोशिश करता
रहा ...अंत में पतंग उड़ ही गया पर पूँछ लगाके उड़ाया ...जैसे ही तुम आये मैं
बहुत खुश हुआ और बोला आज तुम बैठो मैं पतंग उड़ा के दिखाता हूँ...मैं उसी
अंदाज़ में पूँछ लगी हुई पतंग उड़ा दीया ...तुम खूब हँसने लगे कि ये सहारे की
आवश्यकता क्यों पड़ी...मेरे पास कोई उत्तर नही था उस दिन...मैं तो बस उड़ान
देखकर ही प्रफुल्लित था ...तुम शाबासी दिए पर मुझे उससे कोई फर्क नही पड़ा
क्योंकि तुम पहले ही एक लेकिन लगा चुके थे...अब तो ये खेल मेरे दायें हाथ का खेल हो गया...घण्टों पतंग उड़ाता ...बिन पूँछ लगाये ही...छत पे जाकर दुसरो के पतंगों के भी जायजे लेता ...जो भी पतंगबाज आते उनसे केवल पतंग पर व्याख्या होती...जैसे कोई थीसिस लिखनी हो मुझे...हाँ कुछ दर्शन की बाते होती पतंगों पे...
इसी बिच गोलू ने कहा तुम्हे याद है वो पतंग कहानी जो पिछले साल मकर संक्रांति के बारे , क्लास में सर सुना रहे थे और तुम अंत में रो गए थे। नहीं मुझे कुछ याद नहीं है ---- सुनाओ न तुम। गोलू- तुम भी न मेरी तरह कमजोर हो चुटकुला खेल और कहानी में जैसे की मेरा मैथ वीक है.....
चलो ठीक है कहानी सुनाता हु पर इस बार मत रोना। ......
बहुत समय पहले की बात है। गुजरात में एक गुरु का आश्रम था। दूर-दूर से विद्यार्थी उनके पास अध्ययन करने के लिए आते थे। इसके पीछे कारण यह था कि गुरुजी नियमित शिक्षा के साथ व्यावहारिक शिक्षा पर भी बहुत जोर देते थे। उनके पढ़ाने का तरीका भी अनोखा था।
वे हर बात को उदाहरण देकर समझाते थे जिससे शिष्य उसका गूढ़ अर्थ समझकर उसे आत्मसात कर सकें। वे शिष्यों के साथ विभिन्न विषयों पर शास्त्रार्थ भी करते थे ताकि जीवन में यदि उन्हें किसी से शास्त्रार्थ करना पड़े तो वे कमजोर सिद्ध न हों।
एक बार एक शिष्य गुरु के पास आया और बोला- गुरुजी! आज मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूं।
गुरुजी बोले- ठीक है, लेकिन किस विषय पर?
शिष्य बोला- आप अकसर कहते हैं कि सफलता की सीढ़ियां चढ़ चुके मनुष्य को भी नैतिक मूल्य नहीं त्यागने चाहिए। उसके लिए भी श्रेष्ठ संस्कारों रूपी बंधनों में बंधा होना आवश्यक है।
एक बार एक शिष्य गुरु के पास आया और बोला- गुरुजी! आज मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूं।
गुरुजी बोले- ठीक है, लेकिन किस विषय पर?
शिष्य बोला- आप अकसर कहते हैं कि सफलता की सीढ़ियां चढ़ चुके मनुष्य को भी नैतिक मूल्य नहीं त्यागने चाहिए। उसके लिए भी श्रेष्ठ संस्कारों रूपी बंधनों में बंधा होना आवश्यक है।
जबकि मेरा मानना है कि एक निश्चित ऊंचाई पर
पहुंचने के बाद मनुष्य का इन बंधनों से मुक्त होना आवश्यक है, अन्यथा
मूल्यों और संस्कारों की बेड़ियां उसकी आगे की प्रगति में बाधक बनती हैं।
इसी विषय पर मैं आपके साथ शास्त्रार्थ करना चाहता हूं।
शिष्य की बात सुनकर गुरुजी कुछ सोच में डूब गए और बोले- हम इस विषय पर शास्त्रार्थ अवश्य करेंगे, लेकिन पहले चलो चलकर पतंग उड़ाएं और पेंच लड़ाएं। आज मकर संक्रांति का त्योहार है। इस दिन पतंग उड़ाना शुभ माना जाता है।
गुरुजी की बात सुनकर शिष्य खुश हो गया। दोनों आश्रम के बाहर मैदान में आकर पतंग उड़ाने लगे। उनके साथ दो अन्य शिष्य भी थे जिन्होंने चकरी पकड़ी हुई थी।
जब पतंगें एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंच गईं तो गुरुजी शिष्य से बोले- क्या तुम बता सकते हो कि यह पतंगें आकाश में इतनी ऊंचाई तक कैसे पहुंचीं?
शिष्य बोला- जी गुरुजी! हवा के सहारे उड़कर यह ऊंचाई तक पहुंच गईं।
इस पर गुरुजी ने पूछा- अच्छा तो फिर तुम्हारे अनुसार इसमें डोर की कोई भूमिका नहीं है?
शिष्य बोला- ऐसा मैंने कब कहा? प्रारंभिक अवस्था में डोर ने कुछ भूमिका निभाई है, लेकिन एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंचने के बाद पतंग को डोर की आवश्यकता नहीं रहती। अब तो और आगे की ऊंचाइयां वो हवा के सहारे ही प्राप्त कर सकती है।
अब देखिए गुरुजी! डोर तो इसकी प्रगति में बाधक ही बन रही है न? जब तक मैं इसे ढील नहीं दूंगा, यह आगे नहीं बढ़ सकती। देखिए इस तरह मेरी आज की बात सिद्ध हो गई। आप स्वीकार करते हैं इसे?
शिष्य के प्रश्न का गुरुजी ने कुछ जवाब नहीं दिया और बोले- चलो अब पेंच लड़ाएं। इसके पश्चात् दोनों पेंच लड़ाने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान में पेंच नहीं लड़ रहे बल्कि दोनों के बीच पतंगों के माध्यम से शास्त्रार्थ चल रहा हो।
अचानक एक गोता देकर गुरु ने शिष्य की पतंग को काट दिया। कुछ देर हवा में झूलने के बाद पतंग जमीन पर आ गिरी।
इस पर गुरु ने शिष्य से पूछा- पुत्र! क्या हुआ? तुम्हारी पतंग तो जमीन पर आ गिरी। तुम्हारे अनुसार तो उसे आसमान में और भी ऊंचाई को छूना चाहिए था। जबकि देखो मेरी पतंग अभी भी अपनी ऊंचाई पर बनी हुई है, बल्कि डोर की सहायता से यह और भी ऊंचाई तक जा सकती है। अब क्या कहते हो तुम?
शिष्य कुछ नहीं बोला। वह शांत भाव से सुन रहा था।
शिष्य की बात सुनकर गुरुजी कुछ सोच में डूब गए और बोले- हम इस विषय पर शास्त्रार्थ अवश्य करेंगे, लेकिन पहले चलो चलकर पतंग उड़ाएं और पेंच लड़ाएं। आज मकर संक्रांति का त्योहार है। इस दिन पतंग उड़ाना शुभ माना जाता है।
गुरुजी की बात सुनकर शिष्य खुश हो गया। दोनों आश्रम के बाहर मैदान में आकर पतंग उड़ाने लगे। उनके साथ दो अन्य शिष्य भी थे जिन्होंने चकरी पकड़ी हुई थी।
जब पतंगें एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंच गईं तो गुरुजी शिष्य से बोले- क्या तुम बता सकते हो कि यह पतंगें आकाश में इतनी ऊंचाई तक कैसे पहुंचीं?
शिष्य बोला- जी गुरुजी! हवा के सहारे उड़कर यह ऊंचाई तक पहुंच गईं।
इस पर गुरुजी ने पूछा- अच्छा तो फिर तुम्हारे अनुसार इसमें डोर की कोई भूमिका नहीं है?
शिष्य बोला- ऐसा मैंने कब कहा? प्रारंभिक अवस्था में डोर ने कुछ भूमिका निभाई है, लेकिन एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंचने के बाद पतंग को डोर की आवश्यकता नहीं रहती। अब तो और आगे की ऊंचाइयां वो हवा के सहारे ही प्राप्त कर सकती है।
अब देखिए गुरुजी! डोर तो इसकी प्रगति में बाधक ही बन रही है न? जब तक मैं इसे ढील नहीं दूंगा, यह आगे नहीं बढ़ सकती। देखिए इस तरह मेरी आज की बात सिद्ध हो गई। आप स्वीकार करते हैं इसे?
शिष्य के प्रश्न का गुरुजी ने कुछ जवाब नहीं दिया और बोले- चलो अब पेंच लड़ाएं। इसके पश्चात् दोनों पेंच लड़ाने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान में पेंच नहीं लड़ रहे बल्कि दोनों के बीच पतंगों के माध्यम से शास्त्रार्थ चल रहा हो।
अचानक एक गोता देकर गुरु ने शिष्य की पतंग को काट दिया। कुछ देर हवा में झूलने के बाद पतंग जमीन पर आ गिरी।
इस पर गुरु ने शिष्य से पूछा- पुत्र! क्या हुआ? तुम्हारी पतंग तो जमीन पर आ गिरी। तुम्हारे अनुसार तो उसे आसमान में और भी ऊंचाई को छूना चाहिए था। जबकि देखो मेरी पतंग अभी भी अपनी ऊंचाई पर बनी हुई है, बल्कि डोर की सहायता से यह और भी ऊंचाई तक जा सकती है। अब क्या कहते हो तुम?
शिष्य कुछ नहीं बोला। वह शांत भाव से सुन रहा था।
गुरु ने आगे कहा- दरअसल तुम्हारी पतंग ने जैसे ही मूल्यों और संस्कारों रूपी डोर का साथ छोड़ा, वो ऊंचाई से सीधे जमीन पर आ गिरी।
यही हाल हवा से भरे गुब्बारे का भी होता है। वह सोचता है कि अब मुझे किसी और चीज की जरूरत नहीं और वह हाथ से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन जैसे ही हाथ से छूटता है, उसकी सारी हवा निकल जाती है और वह जमीन पर आ गिरता है। गुब्बारे को भी डोरी की जरूरत होती है, जिससे बंधा होने पर ही वह अपने फूले हुए आकार को बनाए रख पाता है। इस तरह जो हवा रूपी झूठे आधार के सहारे टिके रहते हैं, उनकी यही गति होती है।
शिष्य को गुरु की सारी बात समझ में आ चुकी थी और पतंगबाजी का प्रयोजन भी। शास्त्रार्थ के इस अनोखे प्रयोग से अभिभूत वह अपने गुरु के कदमों में गिर पड़ा।
गुरुजी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा तुम जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति करो पर उचाई पर पहुंचने पर भी अपने माता पिता और गुरु की संस्कार रूपी धागा को ढीला मत होने देना।
यही हाल हवा से भरे गुब्बारे का भी होता है। वह सोचता है कि अब मुझे किसी और चीज की जरूरत नहीं और वह हाथ से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन जैसे ही हाथ से छूटता है, उसकी सारी हवा निकल जाती है और वह जमीन पर आ गिरता है। गुब्बारे को भी डोरी की जरूरत होती है, जिससे बंधा होने पर ही वह अपने फूले हुए आकार को बनाए रख पाता है। इस तरह जो हवा रूपी झूठे आधार के सहारे टिके रहते हैं, उनकी यही गति होती है।
शिष्य को गुरु की सारी बात समझ में आ चुकी थी और पतंगबाजी का प्रयोजन भी। शास्त्रार्थ के इस अनोखे प्रयोग से अभिभूत वह अपने गुरु के कदमों में गिर पड़ा।
गुरुजी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा तुम जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति करो पर उचाई पर पहुंचने पर भी अपने माता पिता और गुरु की संस्कार रूपी धागा को ढीला मत होने देना।
कहानी इतनी भावुक थी की मुझे पूरा याद आ गया था।ये स्टोरी तो गोलू आधा ही सुना के भाग गया था अपनी गर्ल फ्रेंड के साथ पंतंग उड़ा रहा है ....
उसे देखकर ऐसा लगा
ना कोई उमंग है ना कोई तरंग है
मेरी जिंदगी भी क्या एक कटी पतंग है
पर दोस्त के गर्लफ्रेंड मिल गई तो ऐसा लगता है हमे भी मिल जाएगी मेरे मन में प्यार के लड्डू फूटने लगे थे ऐसा ख्वाब की एक परी कही और मेरे नाम की पतंग उड़ा रही होगी। ...... एक दिन हम दोनो पतंग उड़ायेंगे|
सपना साकार हुआ वो परी तों तुम मिली
मगर साथ में साथ में पतंग उड़ाना नशीब में न था!
आज मकरसकान्ति है और पतंग उड़ाते उड़ाते तुम याद आने लगे
फिर क्या पतंग उड़ाते उड़ाते
लगता ये डोर तुम हो और पतंग मैं...तुम सदा डोर की भाँति पतंग को पकड़े रहते हो...पतंग का पूरा अस्तित्व डोर से है...पतंग आकाश में घूमती है...स्वछन्द होकर नाचती है...एक मात्र डोर के ही सहारे तो...तुम भी तो मुझे डोर की तरह पकड़ के सिखाते हो...खुद से बांधे रखते हो ताकि मेरा दिशा भटक न जायें...तुम इतने सहूलियत से धागा खींचते हो कि न धागा टूटता है न पतंग का साथ छुटता है...
पतंग उड़ाने में असली मजा तभी है जब पेंच लगाया जाय...बिन पेंच लगाये मुझे चैन नही मिलता...तुम तो जानती हो न...मेरी पतंग कोई काट नही पाता...आज भी वही होगा...तुम खुश रहो केवल और देखते रहो...
मैं यही बोला -
मेरा ध्यान पेंच लगाने पर था ही नही...तुम साथ थे बस और क्या चाहिए मुझे...पतंग स्वतः मस्ती से उड़ रही थी क्योंकि तुम डोर बनके मुझे पकड़े थे...तुम पर विस्वास था कि तुम ये डोर नही तोड़ोगे...
इसी तरह पेंच लगाते-लगाते उस रोज पतंग कट गयी...और पतंग डोर से बिछड़ गयी..
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तभी याद आया की
देखो मेरी तो ख़्वाहिश ही ऐसी होती है जो पूरी ही नही होती है...आज भी नही हुई...ऐसा लगा की जिंदगी भी कटी पतंग की तरह चल रहा है /
जिसे हम पा नही सकतें....उसे सोचकर ही खुश हो जाना ही इश्क है ..
कभी कभी पता ही नहीं चलता है कि दाँव पर क्या लगा है,
हारने के बाद अहसास होता है कि बहुत कुछ हार गए हैं.............यही इश्क का नाम है।
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